बहुभागीय पुस्तकें >> ताओ उपनिषद भाग-1 ताओ उपनिषद भाग-1ओशो
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ओशो द्वारा लाओत्से के ‘ताओ तेह किंग’ पर दिए गए 127 प्रवचनों में पहले 22 अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन...
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जिन्होंने जाना है–शब्दों से नहीं, शास्त्रों से नहीं, वरन जीवन
से ही जीकर-लाओत्से उन थोड़े से लोगों में से एक हैं और जिन्होंने केवल
जाना ही नहीं है, वरन जनाने की भी अथक चेष्टा की है। लाओत्से उन और भी
बहुत थोड़े से लोगों में से एक है।
लाओत्से की किताब जमीन पर बचने वाली उन थोड़ी सी किताबों में से एक है, जो पूरी तरह शुद्ध है। इसमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। न जोड़ने का कारण यह है कि जो लाओत्से कहता है, लाओत्से की हैसियत का व्यक्ति ही उसमें कुछ जोड़ सकता है। किसी को कुछ जोड़ना हो तो लाओत्से होना पड़े और लाओत्से होकर जोड़ने में फिर कोई हर्ज नहीं है।
लाओत्से की किताब जमीन पर बचने वाली उन थोड़ी सी किताबों में से एक है, जो पूरी तरह शुद्ध है। इसमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। न जोड़ने का कारण यह है कि जो लाओत्से कहता है, लाओत्से की हैसियत का व्यक्ति ही उसमें कुछ जोड़ सकता है। किसी को कुछ जोड़ना हो तो लाओत्से होना पड़े और लाओत्से होकर जोड़ने में फिर कोई हर्ज नहीं है।
भूमिका
लाओत्से ने जो कहा है, वह पच्चीस सौ साल पुराना जरूर है। लेकिन, एक अर्थ
में वह इतना ही नया है, जितनी सुबह की ओस की बूंद नयी होती है। नया इसलिए
है कि उस पर अब तक प्रयोग नहीं हुआ। नया इसलिए है कि मनुष्य की आत्मा उस
रास्ते पर एक कदम भी नहीं चली। रास्ता बिलकुल अछूता और कुंआरा
है।’
इस पुस्तक के अंत की ओर एक मित्र ने ओशो से पूछा है कि लाओत्से की पच्चीस सौ साल पुरानी धर्म-शिक्षाओं को आपके द्वारा पुनर्जीवित किए जाने के पीछे प्रेरणा क्या है ? ऊपर के कुछ शब्द ओशो ने उसके ही उत्तर में कहे हैं। और उन्होंने इतना फिर जोड़ दिया : ‘पुराना इसलिए है कि पच्चीस सौ साल पहले लाओत्से ने उसके संबंध में खबर दी। लेकिन नया इसलिए है कि उस खबर को अब तक सुना नहीं गया। और आज उस खबर को सुनने की सर्वाधिक जरूरत है, जितनी कि कभी भी नहीं थी।’
भारत की तरह चीन ने भी धरती पर सबसे पुरानी व समृद्ध सभ्यता की विरासत पायी है। कोई छह हजार वर्षों का उसका ज्ञात इतिहास है–अर्जनों और उपलब्धियों से लदा हुआ। और यदि पूछा जाए की चीन के इस लंबे और शानदार इतिहास में सबसे उजागर व्यक्तित्व, एक ही व्यक्तित्व कौन हुआ, तो आज का प्रबुद्ध जगत बिना हिचकिचाहट के लाओत्से का नाम लेगा। कुछ समय पूर्व इस प्रश्न के उत्तर में शायद कनफ्यूशियस का नाम लिया जाता। कनफ्यूशियस लाओत्से का समसामयिक था। और यह भी सच है कि बीते समय के चीनी समाज पर लाओत्से की जीवन-दृष्टि के बजाय कनफ्यूशियस के नीतिवादी विचार अधिक प्रभावी सिद्ध हुए।
समय के थोड़े से अंतर के साथ भारत के बुद्ध और महावीर तथा यूनान के सुकरात भी लाओत्से के समकालीन थे।
अचरज की बात है कि चीनी इतिहास को अपने सर्वाधिक मूल्यवान महापुरुष के जीवन-वृत्त के संबंध में सबसे कम तथ्य मालूम हैं। लेकिन यह दुर्घटना लाओत्से की असाधारन दृष्टि के बिलकुल अनुकूल पड़ती है। उनका ही यह वचन है : ‘इसलिए संत अपने व्यक्तित्व को सदा पीछे रखते हैं।’
प्रसिद्ध चीनी विद्वान लिन यूतांग ने अपनी पुस्तक ‘दि विजडम आफ लाओत्से’ में लिखा है : ‘लाओत्से के बारे में हम अत्यंत कम जानते हैं। इतना ही जानते हैं कि उनका जन्म 571 ई. पू. हुआ था। वे कनफ्यूशियस के समकालीन थे। और एक पुराने, सुसंस्कृत घराने से आते थे। राजधानी में सम्राट के अभिलेखागार के संरक्षण के पद पर लाओत्से कभी काम भी करते थे। मध्य जीवन में ही उन्होंने अवकाश ले लिया और गायब जैसे हो गए। संभवतः वे नब्बे वर्षों से अधिक दिनों तक जीए और पोते-पोतियों की संतित छोड़ कर मरे। उनमें से एक शासनाधिकारी भी बना।’
यह भी आश्चर्य की बात है कि इतनी लंबी उम्र रही हो जिनकी और इतनी गहरी प्रज्ञा को जो उपलब्ध हुए हों, उनके वचनों की मात्र छोटी-सी पुस्तिका मनुष्य-जाति को प्राप्त हुई। ताओ तेह किंग या दि बुक आफ ताओ अथवा ताओ उपनिषद उसका ही नाम है। इसमें लगभग इक्यासी छोटे-छोटे अध्याय हैं, जिन्हें सूत्र कहना अधिक उचित होता। वर्तमान पुस्तक के आकार के पच्चीस-तीस पन्नों में वे पूरे वचन समा सकते हैं।
और यह छोटा सा धर्म-ग्रंथ गीता या उपनिषद, धम्मपद या महावीर-वाणी, बाइबिल या कुरान या झेन्दावेस्ता की ही कोटि में आता है। किसी से जरा भी कम हैसियत नहीं है इसकी। और कुछ अर्थों में तो यह बिलकुल ही अनूठा और अतुलनीय है।
यह प्रज्ञा-पुस्तक कैसे प्रणीत हुई, इसकी भी बहुत रोचक कथा है। जब लाओत्से की ख्याति बहुत बढ़ गयी, तब उनके शिष्यों ने, यहां तक कि देश के सम्राट ने भी बहुत आग्रह किया कि उन्होंने जो जाना है, जो अनुभव किया है, उसे वे कहीं अभिलिखित कर दें। लेकिन ताओ के ऋषि लाओत्से सदा ही इनकार करते रहे। और जब आग्रह का जोर बहुत बढ़ गया, तब वे इससे बचने के लिए ही एक रात चुपचाप अपनी कुटिया छोड़कर, कुटिया क्या देश ही छोड़कर, भाग निकले ! लेकिन देश की सीमा पर सम्राट ने उन्हें पकड़वा लिया और कहलाया कि बिना चुंगी चुकाए आप सरहद के पार कैसे जा सकते हैं। सो, चुंगी-नाके पर ही चुंगी के रूप में यह अदभुत उपनिषद उदभूत हुआ, जिसका आरंभ ही इन शब्दों के साथ होता है : ‘सत्य कहा नहीं जा सकता। और जो कहा जा सकता है है, वह सत्य नहीं है।
और यह चुंगी चुका कर फिर ताओ तेह किंग के ऋषि कहां अंतर्धान हो गए, इसकी कोई भी खबर इतिहास में नहीं है। और यह भी उस संत के सर्वथा अनुरूप ही हुआ। कथा कहती है, लाओत्से सशरीर अनंत शून्य में लीन हो गए।
यह ग्रंथ गागर में सागर भरने की अपूर्व और सफल चेष्टा है। प्राचीन समय के ज्ञानी अपनी बात, अपना दर्शन सूत्र रूप में या बीज-मंत्रों की तरह अभिव्यक्त करते थे। ताओ उपनिषद इस दृष्टि से भी अप्रतिम है। उसकी वाणी पाठकों को हमारे देश के संत कबीर की उलटबांसियों की याद दिलाएगी। जीवन की आदिम सहजता और स्वाभाविकता की, निर्दोषिता और रहस्यमयता की जैसी हिमायत की है, लाओत्से ने, वह कबीर के अत्यंत निकट पड़ती है।
अपने इन प्रवचनों में ओशो ने कहीं कहा है : ‘पृथ्वी पर जितने जाननेवाले लोग हुए हैं, उनमें लाओत्से बहुत अद्वितीय है। कृष्ण की गीता में कोई साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी कुछ जोड़ना चाहे तो जोड़ सकता है। महावीर के वचनों में, बुद्ध या क्राइस्ट के वक्तव्यों में कुछ भी मिश्रित किया जा सकता है। और पता लगाना बहुत कठिन होगा, क्योंकि इनके वक्तव्य ऐसे हैं कि साधारण मनुष्य की नीति और समझ के प्रतिकूल नहीं पड़ते। और इसलिए दुनिया के सभी शास्त्र प्रक्षिप्त हो जाते हैं, उनमें इंटरपोलेशन हो जाता है। दूसरी पीढ़ियां उनमें बहुत कुछ जोड़ देती हैं। इन शास्त्रों को शुद्ध रखना असंभव है। लेकिन लाओत्से की किताब जमीन पर बचनेवाली उन थोड़ी सी किताबों में से एक है, जो पूरी तरह शुद्ध हैं। इनमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता है। न जोड़ने का कारण यह है कि जो लाओत्से कहता है, लाओत्से की हैसियत का व्यक्ति ही उसमें कुछ जो़ड़ सकता है। किसी को कुछ जोड़ना हो तो उसे लाओत्से बनना होगा।
अन्यत्र ओशो ने कहा है कि लाओत्से के पीछे धर्म या संप्रदाय निर्मित नहीं हो सका। इतिहास की यह भी एक विरल घटना है। कि इस संत ने सत्य को उसकी चरम ऊंचाइयों पर देखा ही नहीं, अभिव्यक्त भी किया। फिर ताज्जुब क्या कि उनकी इस अभिव्यक्ति पर टीकाकारों की कलम भी यदा-कदा ही उठ पायी।
ओशो सच ही कहते होंगे कि लाओत्से में कुछ जोड़ने के लिए लाओत्से होना होगा। लेकिन हमें लगता है कि लाओत्से को ठीक से समझने और समझाने के लिए भी लाओत्से होने से कम से काम नहीं चलेगा। लाओत्से ही क्यों, कृष्ण या बुद्ध या उनकी हैसियत के किसी भी सत्य-द्रष्टा को समझने के लिए उनकी चेतना की ऊंचाई तक उठना अनिवार्य है। और शायद यही कारण है कि दुनिया में अब तक उनकी बातों से, जीवन से भी, अर्थ कम और अनर्थ ही अधिक निकाले गए हैं।
हम अनधिकारी लोग और कर ही क्या सकते हैं ?
अनंत अस्तित्व में लाओत्से की आत्मा यदि कहीं होती तो वह बहुत आनंदित होगी कि हजारों वर्ष बाद उसके ही एक समानधर्मा ओशो जैसे दुर्लभ द्रष्टा और मनीषी के हाथों ताओ तेह किंग की व्याख्या हो रही है। यह व्याख्या से भी अधिक उसका अनावरण है, रहस्योदघाटन है। यह नया ताओ उपनिषद कई अर्थों में वर्तमान युग की अभूतपूर्व कृति मानी जाएगी, इसमें हमें जरा भी संदेह नहीं है।
ओशो स्वयं भी कहते हैं कि मैं अपने को लाओत्से के सबसे निकट पाता हूं।
यह भी इतिहास की एक अनूठी घटना है कि ओशो एक ही समय में महावीर की वाणी और कृष्ण की गीता, ऋषियों के उपनिषद तथा लाओत्से की इस अकेली पुस्तक की व्याख्या किए चले जा रहे हैं। प्रायः एक ही महीने के अंदर वे इन सब पर बारी-बारी से बोल जाते हैं। किसी को चिंता हो सकती है कि परस्पर एक-दूसरे के ऐसे विरोधी व्यक्तियों के साथ वे न्याय कैसे करते होंगे !
लेकिन न्याय निस्संदेह होता है। इस दृष्टि से भी ओशो शायद धर्म के इतिहास में पहले प्रज्ञा-पुरुष हैं, जिन्होंने सभी अवतारों, तीर्थंकरों और पैगंबरों के साथ अपने को एकात्म कर लिया है। महावीर और बुद्ध मोहम्मद और क्राइस्ट और लाओत्से जैसी विरोधी प्रतीत होने वाली प्रतिभाओं के साथ एक होना चमत्कार ही है। मानो वे सबके सब सम्मिलित होकर, विलीन होकर ओशो में प्रकट हुए हों।
इस संबंध में ओशो स्वयं इस ग्रंथ में कहीं कहते हैं : मेरा अपना खुद का निजी स्वभाव जो है, वह ऐसा है कि जब मैं लाओत्से पर बोल रहा हूं, तब मैं लाओत्से होकर ही बोल रहा हूँ। मैं भूल ही जाऊँगा कि कभी कोई चैतन्य हुए थे कि कभी कोई मीरा हुई थी, कि कृष्ण ने कभी कोई गीता कही थी। मैं उन्हें बीच में नहीं लाऊंगा।’ और कारण है कि ‘मेरा अपना कोई लगाव नहीं है, इसलिए मैं किसी के साथ पूरा हो सकता हूं।’
यह ताओ उपनिषद का प्रथम खंड है, शेष पांच खंड शीघ्र ही प्रकाशित होने को हैं। ताओ के रहस्य-लोक में आपका स्वागत है।
इस पुस्तक के अंत की ओर एक मित्र ने ओशो से पूछा है कि लाओत्से की पच्चीस सौ साल पुरानी धर्म-शिक्षाओं को आपके द्वारा पुनर्जीवित किए जाने के पीछे प्रेरणा क्या है ? ऊपर के कुछ शब्द ओशो ने उसके ही उत्तर में कहे हैं। और उन्होंने इतना फिर जोड़ दिया : ‘पुराना इसलिए है कि पच्चीस सौ साल पहले लाओत्से ने उसके संबंध में खबर दी। लेकिन नया इसलिए है कि उस खबर को अब तक सुना नहीं गया। और आज उस खबर को सुनने की सर्वाधिक जरूरत है, जितनी कि कभी भी नहीं थी।’
भारत की तरह चीन ने भी धरती पर सबसे पुरानी व समृद्ध सभ्यता की विरासत पायी है। कोई छह हजार वर्षों का उसका ज्ञात इतिहास है–अर्जनों और उपलब्धियों से लदा हुआ। और यदि पूछा जाए की चीन के इस लंबे और शानदार इतिहास में सबसे उजागर व्यक्तित्व, एक ही व्यक्तित्व कौन हुआ, तो आज का प्रबुद्ध जगत बिना हिचकिचाहट के लाओत्से का नाम लेगा। कुछ समय पूर्व इस प्रश्न के उत्तर में शायद कनफ्यूशियस का नाम लिया जाता। कनफ्यूशियस लाओत्से का समसामयिक था। और यह भी सच है कि बीते समय के चीनी समाज पर लाओत्से की जीवन-दृष्टि के बजाय कनफ्यूशियस के नीतिवादी विचार अधिक प्रभावी सिद्ध हुए।
समय के थोड़े से अंतर के साथ भारत के बुद्ध और महावीर तथा यूनान के सुकरात भी लाओत्से के समकालीन थे।
अचरज की बात है कि चीनी इतिहास को अपने सर्वाधिक मूल्यवान महापुरुष के जीवन-वृत्त के संबंध में सबसे कम तथ्य मालूम हैं। लेकिन यह दुर्घटना लाओत्से की असाधारन दृष्टि के बिलकुल अनुकूल पड़ती है। उनका ही यह वचन है : ‘इसलिए संत अपने व्यक्तित्व को सदा पीछे रखते हैं।’
प्रसिद्ध चीनी विद्वान लिन यूतांग ने अपनी पुस्तक ‘दि विजडम आफ लाओत्से’ में लिखा है : ‘लाओत्से के बारे में हम अत्यंत कम जानते हैं। इतना ही जानते हैं कि उनका जन्म 571 ई. पू. हुआ था। वे कनफ्यूशियस के समकालीन थे। और एक पुराने, सुसंस्कृत घराने से आते थे। राजधानी में सम्राट के अभिलेखागार के संरक्षण के पद पर लाओत्से कभी काम भी करते थे। मध्य जीवन में ही उन्होंने अवकाश ले लिया और गायब जैसे हो गए। संभवतः वे नब्बे वर्षों से अधिक दिनों तक जीए और पोते-पोतियों की संतित छोड़ कर मरे। उनमें से एक शासनाधिकारी भी बना।’
यह भी आश्चर्य की बात है कि इतनी लंबी उम्र रही हो जिनकी और इतनी गहरी प्रज्ञा को जो उपलब्ध हुए हों, उनके वचनों की मात्र छोटी-सी पुस्तिका मनुष्य-जाति को प्राप्त हुई। ताओ तेह किंग या दि बुक आफ ताओ अथवा ताओ उपनिषद उसका ही नाम है। इसमें लगभग इक्यासी छोटे-छोटे अध्याय हैं, जिन्हें सूत्र कहना अधिक उचित होता। वर्तमान पुस्तक के आकार के पच्चीस-तीस पन्नों में वे पूरे वचन समा सकते हैं।
और यह छोटा सा धर्म-ग्रंथ गीता या उपनिषद, धम्मपद या महावीर-वाणी, बाइबिल या कुरान या झेन्दावेस्ता की ही कोटि में आता है। किसी से जरा भी कम हैसियत नहीं है इसकी। और कुछ अर्थों में तो यह बिलकुल ही अनूठा और अतुलनीय है।
यह प्रज्ञा-पुस्तक कैसे प्रणीत हुई, इसकी भी बहुत रोचक कथा है। जब लाओत्से की ख्याति बहुत बढ़ गयी, तब उनके शिष्यों ने, यहां तक कि देश के सम्राट ने भी बहुत आग्रह किया कि उन्होंने जो जाना है, जो अनुभव किया है, उसे वे कहीं अभिलिखित कर दें। लेकिन ताओ के ऋषि लाओत्से सदा ही इनकार करते रहे। और जब आग्रह का जोर बहुत बढ़ गया, तब वे इससे बचने के लिए ही एक रात चुपचाप अपनी कुटिया छोड़कर, कुटिया क्या देश ही छोड़कर, भाग निकले ! लेकिन देश की सीमा पर सम्राट ने उन्हें पकड़वा लिया और कहलाया कि बिना चुंगी चुकाए आप सरहद के पार कैसे जा सकते हैं। सो, चुंगी-नाके पर ही चुंगी के रूप में यह अदभुत उपनिषद उदभूत हुआ, जिसका आरंभ ही इन शब्दों के साथ होता है : ‘सत्य कहा नहीं जा सकता। और जो कहा जा सकता है है, वह सत्य नहीं है।
और यह चुंगी चुका कर फिर ताओ तेह किंग के ऋषि कहां अंतर्धान हो गए, इसकी कोई भी खबर इतिहास में नहीं है। और यह भी उस संत के सर्वथा अनुरूप ही हुआ। कथा कहती है, लाओत्से सशरीर अनंत शून्य में लीन हो गए।
यह ग्रंथ गागर में सागर भरने की अपूर्व और सफल चेष्टा है। प्राचीन समय के ज्ञानी अपनी बात, अपना दर्शन सूत्र रूप में या बीज-मंत्रों की तरह अभिव्यक्त करते थे। ताओ उपनिषद इस दृष्टि से भी अप्रतिम है। उसकी वाणी पाठकों को हमारे देश के संत कबीर की उलटबांसियों की याद दिलाएगी। जीवन की आदिम सहजता और स्वाभाविकता की, निर्दोषिता और रहस्यमयता की जैसी हिमायत की है, लाओत्से ने, वह कबीर के अत्यंत निकट पड़ती है।
अपने इन प्रवचनों में ओशो ने कहीं कहा है : ‘पृथ्वी पर जितने जाननेवाले लोग हुए हैं, उनमें लाओत्से बहुत अद्वितीय है। कृष्ण की गीता में कोई साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी कुछ जोड़ना चाहे तो जोड़ सकता है। महावीर के वचनों में, बुद्ध या क्राइस्ट के वक्तव्यों में कुछ भी मिश्रित किया जा सकता है। और पता लगाना बहुत कठिन होगा, क्योंकि इनके वक्तव्य ऐसे हैं कि साधारण मनुष्य की नीति और समझ के प्रतिकूल नहीं पड़ते। और इसलिए दुनिया के सभी शास्त्र प्रक्षिप्त हो जाते हैं, उनमें इंटरपोलेशन हो जाता है। दूसरी पीढ़ियां उनमें बहुत कुछ जोड़ देती हैं। इन शास्त्रों को शुद्ध रखना असंभव है। लेकिन लाओत्से की किताब जमीन पर बचनेवाली उन थोड़ी सी किताबों में से एक है, जो पूरी तरह शुद्ध हैं। इनमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता है। न जोड़ने का कारण यह है कि जो लाओत्से कहता है, लाओत्से की हैसियत का व्यक्ति ही उसमें कुछ जो़ड़ सकता है। किसी को कुछ जोड़ना हो तो उसे लाओत्से बनना होगा।
अन्यत्र ओशो ने कहा है कि लाओत्से के पीछे धर्म या संप्रदाय निर्मित नहीं हो सका। इतिहास की यह भी एक विरल घटना है। कि इस संत ने सत्य को उसकी चरम ऊंचाइयों पर देखा ही नहीं, अभिव्यक्त भी किया। फिर ताज्जुब क्या कि उनकी इस अभिव्यक्ति पर टीकाकारों की कलम भी यदा-कदा ही उठ पायी।
ओशो सच ही कहते होंगे कि लाओत्से में कुछ जोड़ने के लिए लाओत्से होना होगा। लेकिन हमें लगता है कि लाओत्से को ठीक से समझने और समझाने के लिए भी लाओत्से होने से कम से काम नहीं चलेगा। लाओत्से ही क्यों, कृष्ण या बुद्ध या उनकी हैसियत के किसी भी सत्य-द्रष्टा को समझने के लिए उनकी चेतना की ऊंचाई तक उठना अनिवार्य है। और शायद यही कारण है कि दुनिया में अब तक उनकी बातों से, जीवन से भी, अर्थ कम और अनर्थ ही अधिक निकाले गए हैं।
हम अनधिकारी लोग और कर ही क्या सकते हैं ?
अनंत अस्तित्व में लाओत्से की आत्मा यदि कहीं होती तो वह बहुत आनंदित होगी कि हजारों वर्ष बाद उसके ही एक समानधर्मा ओशो जैसे दुर्लभ द्रष्टा और मनीषी के हाथों ताओ तेह किंग की व्याख्या हो रही है। यह व्याख्या से भी अधिक उसका अनावरण है, रहस्योदघाटन है। यह नया ताओ उपनिषद कई अर्थों में वर्तमान युग की अभूतपूर्व कृति मानी जाएगी, इसमें हमें जरा भी संदेह नहीं है।
ओशो स्वयं भी कहते हैं कि मैं अपने को लाओत्से के सबसे निकट पाता हूं।
यह भी इतिहास की एक अनूठी घटना है कि ओशो एक ही समय में महावीर की वाणी और कृष्ण की गीता, ऋषियों के उपनिषद तथा लाओत्से की इस अकेली पुस्तक की व्याख्या किए चले जा रहे हैं। प्रायः एक ही महीने के अंदर वे इन सब पर बारी-बारी से बोल जाते हैं। किसी को चिंता हो सकती है कि परस्पर एक-दूसरे के ऐसे विरोधी व्यक्तियों के साथ वे न्याय कैसे करते होंगे !
लेकिन न्याय निस्संदेह होता है। इस दृष्टि से भी ओशो शायद धर्म के इतिहास में पहले प्रज्ञा-पुरुष हैं, जिन्होंने सभी अवतारों, तीर्थंकरों और पैगंबरों के साथ अपने को एकात्म कर लिया है। महावीर और बुद्ध मोहम्मद और क्राइस्ट और लाओत्से जैसी विरोधी प्रतीत होने वाली प्रतिभाओं के साथ एक होना चमत्कार ही है। मानो वे सबके सब सम्मिलित होकर, विलीन होकर ओशो में प्रकट हुए हों।
इस संबंध में ओशो स्वयं इस ग्रंथ में कहीं कहते हैं : मेरा अपना खुद का निजी स्वभाव जो है, वह ऐसा है कि जब मैं लाओत्से पर बोल रहा हूं, तब मैं लाओत्से होकर ही बोल रहा हूँ। मैं भूल ही जाऊँगा कि कभी कोई चैतन्य हुए थे कि कभी कोई मीरा हुई थी, कि कृष्ण ने कभी कोई गीता कही थी। मैं उन्हें बीच में नहीं लाऊंगा।’ और कारण है कि ‘मेरा अपना कोई लगाव नहीं है, इसलिए मैं किसी के साथ पूरा हो सकता हूं।’
यह ताओ उपनिषद का प्रथम खंड है, शेष पांच खंड शीघ्र ही प्रकाशित होने को हैं। ताओ के रहस्य-लोक में आपका स्वागत है।
स्वामी आनंद मैत्रेय
अनुक्रम
१. | सनातन व अविकारी ताओ | १ |
२. | रहस्यमय परम स्रोत–ताओ | २१ |
३. | ताओ की निष्काम गहराइयों में | ४५ |
४. | अज्ञान और ज्ञान के पार–वह रहस्य भरा ताओ | ६५ |
५. | सापेक्ष विरोधों से मुक्त–सुंदर और शुभ | ८७ |
६. | विपरीत स्वरों का संगीत | १॰७ |
७. | निष्क्रिय कर्म व निःशब्द संवाद–ज्ञानी का | १३३ |
८. | स्वामित्व और श्रेय की आकांक्षा से मुक्त कर्म | १५३ |
९. | महत्वाकांक्षा का जहर व जीवन की व्यवस्था | १७५ |
१॰. | भरे पेट और खाली मन का राज–ताओ | २॰३ |
११. | कोरे ज्ञान से इच्छा-मुक्ति व अक्रिय व्यवस्था की ओर | २१९ |
१२. | वह परम शून्य, परम उदगम, परम आधार–ताओ | २३९ |
१३. | अहंकार-विसर्जन और रहस्य में प्रवेश | २५७ |
१४. | प्रतिबिंब उसका, जो कि परमात्मा के भी पहले था | २७९ |
१५. | समझ, शून्यता, समर्पण व पुरुषार्थ | २९९ |
१६. | निष्पक्ष हैं तीनों–स्वर्ग पृथ्वी और संत | ३१९ |
१७. | विरोधों में एकता और शून्य में प्रतिष्ठा | ३३५ |
१८. | घाटी-सदृश्य, स्त्रैण व रहस्यमयी परम सत्ता | ३५३ |
१९. | स्त्रैण-चित्त के अन्य आयाम : श्रद्धा, स्वीकार और समर्पण | ३७१ |
२॰. | धन्य हैं वे जो अंतिम होने को राजी हैं | ३८९ |
२१. | जल का स्वभाव ताओ के निकट है | ४॰९ |
२२. | लाओत्से सर्वाधिक सार्थक–वर्तमान विश्व-स्थिति में | ४२७ |
अध्याय १ : सूत्र १
परम ताओ
जिस पथ पर विचरण किया जा सके, वह सनातन और अविकारी पथ नहीं है।
जिसके नाम का सुमिरण हो, वह कालजयी एवं सदा एकरस रहने वाला नाम नहीं है।
जिसके नाम का सुमिरण हो, वह कालजयी एवं सदा एकरस रहने वाला नाम नहीं है।
सनातन व अविकारी ताओ
जिन्होंने जाना है–शब्दों में नहीं, शास्त्रों से नहीं, वरन
जीवन से ही, जीकर–लाओत्से उन थोड़े से लोगों में से एक है। और
जिन्होंने केवल जाना ही नहीं है, वरन जनाने की भी अथक चेष्टा की
है–लाओत्से उन और भी बहुत थोड़े से लोगों में से एक है।
लेकिन जिन्होंने भी जाना है और जिन्होंने भी दूसरों को जनाने की कोशिश की है, उनका प्राथमिक अनुभव यही है कि जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं है; जो वाणी का आकार ले सकता है, आकर लेते ही अपनी निराकार सत्ता को अनिवार्यतया खो देता है। जैसे कोई आकाश को चित्रित करे, तो आकाश कभी भी चित्रित नहीं होगा; जो भी चित्र में बनेगा, निश्चित ही वह आकाश नहीं है। आकाश तो वह है जो सबको घेरे हुए है; चित्र तो किसी को भी नहीं घेर पाएगा। चित्र तो स्वयं ही आकाश से घिरा हुआ है।
तो चित्र में बना हुआ जैसा आकाश होगा, ऐसे ही शब्द में बना सत्य होगा। न तो चित्र में बने आकाश में पक्षी उड़ सकेगा, न चित्र में बने आकाश में सूरज निकलेगा, न रात तारे दिखाई पड़ेंगे। चित्र का आकाश तो होगा मृत; कहने को ही आकाश होगा, नाम ही भर आकाश होगा। आकाश के होने की कोई संभावना चित्र में नहीं है।
जो भी सत्य को कहने चलेगा, उसे पहले ही कदम पर जो बड़ी से बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है, वह यह कि शब्द में डालते ही सत्य असत्य हो जाता है। ऐसा हो जाता है, जैसा वह नहीं है। और जो कहना चाहा था, वह अनकहा रह जाता है। और जो नहीं कहना चाहा था, वह मुखर हो जाता है।
लाओत्से अपनी पहली पंक्ति में इसी बात से शुरू करता है।
ताओ बहुत अनूठा शब्द है। उसके अर्थ को थोड़ा खयाल में ले ले तो आगे बढ़ने में आसानी होगी। ताओ के बहुत अर्थ हैं। जो भी चीज जितनी गहरी होती है उतनी बहुअर्थी हो जाती है। और जब कोई चीज बहुआयामी, मल्टी डायमेंशनल होती है, तब स्वभावतः जटिलता और बढ़ जाती है।
ताओ का एक तो अर्थ है : पथ, मार्ग, दि वे। लेकिन सभी पथ बंधे हुए होते हैं। ताओ ऐसा पथ है जैसे पक्षी आकाश में उड़ता है; उड़ता है तब पथ तो निर्मित होता है, लेकिन बंधा हुआ निर्मित नहीं होता है। सभी पथों पर चरणचिह्न बन जाते हैं और पीछे से आने वालों के लिए सुविधा हो जाती है। ताओ ऐसा पथ है जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, उनके पदों के कोई चिह्न नहीं बनते, और पीछे से आने वाले को कोई भी सुविधा नहीं होती।
तो अगर यह खयाल में रहे कि ऐसा पथ जो बंधा हुआ नहीं है, ऐसा पथ जिस पर चरणचिह्न नहीं बनते, ऐसा पथ जिसे कोई दूसरा आपके लिए निर्मित नहीं कर सकता–आप ही चलते हैं और पथ निर्मित होता है–तो हम ताओ का अर्थ पथ भी कर सकते हैं, दि वे भी कर सकते हैं। लेकिन ऐसा पथ तो कहीं दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए ताओ को पथ कहना उचित होगा ?
लेकिन यह एक आयाम ताओ का है। तब पथ का एक दूसरा अर्थ लें: पथ है वह, जिससे पहुंचा जा सके; पथ है वह, जो मंजिल से जोड़ दे। लेकिन ताओ ऐसा पथ भी नहीं है। जब हम एक रास्ते पर चलते हैं और मंजिल पर पहुंच जाते हैं, तो रास्ता और मंजिल दोनो जुड़े हुए होते हैं। असल में, मंजिल रास्ते का आखिरी छोर होता है, और रास्ता मंजिल की शुरुआत होती है। रास्ता और मंजिल दो चीजें नहीं हैं, जुड़े हुए संयुक्त हैं। रास्ते के बिना मंजिल न हो सकेगी; मंजिल के बिना रास्ता न होगा। लेकिन ताओ एक ऐसा पथ है, जो मंजिल से जुड़ा हुआ नहीं है। जब कोई रास्ता मंजिल से जुड़ा होता है, तो सभी को उतना ही रास्ता चलना पड़ता है, तभी मंजिल आती है।
ताओ ऐसा पथ है कि जो जहां खड़ा है, उसी स्थान पर, उसी जगह पर खड़े हुए मंजिल को उपलब्ध हो सकता है। इसलिए ताओ को ऐसा पथ भी नहीं कहा जा सकता। जहां खड़े हैं हम, जिस जगह, जिस स्थान पर, वहीं से मंजिल मिल सके; और ऐसा भी हो सकता है कि हम जन्मों-जन्मों चलें, और मंजिल न मिल सके; तो ताओ जरूर किसी और तरह का पथ है। इसलिए एक तो पथ का अर्थ है कहीं गहरे में, लेकिन बहुत सी शर्तों के साथ।
दूसरा ताओ का अर्थ है : धर्म। लेकिन धर्म का अर्थ मजहब नहीं है, रिलीजन नही है। धर्म का वही अर्थ है जो पुरातनतम ऋषियों ने लिया है। धर्म का अर्थ होता है : वह नियम, जो सभी को धारण किए हुए है। जीवन जहां भी है उसे धारण करने वाला जो आत्यंतिक नियम, दि अल्टिमेट लॉ, वह जो आखिरी कानून है वह। तो ताओ धर्म है–मजहब के अर्थों में नहीं, इसलाम और हिंदू और जैन और बौद्ध और सिक्ख के अर्थों में नहीं–जीवन का परम नियम। धर्म है, जीवन के शाश्वत नियम के अर्थ में।
लेकिन सभी नियम सीमित होते हैं। ताओ ऐसा नियम है जिसकी कोई सीमा नहीं है।
असल में सीमा तो होती है मत्यु की; जीवन की कोई सीमा नहीं होती। मरी हुई वस्तुएं ही सीमित होती हैं; जीवित वस्तु सीमित नहीं होती, असीम होती है। जीवन का अर्थ ही है : फैलाव की निरंतर क्षमता, दि कैपेसिटी टु एक्सपैंड। एक बीज जीवित है, अगर वह अंकुर हो सकता है। एक अंकुर जीवित है, अगर वह वृक्ष हो सकता है। एक वृक्ष जीवित है, अगर उसमें और अंकुर, और बीज लग सकते हैं। जहां फैलाव की क्षमता रुक जाती है वहीं जीवन रुक जाता है। बच्चा इसीलिए ज्यादा जीवित है बूढ़े से; अभी फैलाव की क्षमता है बहुत।
तो ताओ कोई सीमित अर्थों में नियम नहीं है। आदमी के बनाए हुए कानून जैसा कानून नहीं है, जिसको कि डिफाइन किया जा सके, जिसकी परिभाषा तय की जा सके, जिसकी परिसीमा तय की जा सके। ताओ ऐसा नियम है जो अनंत विस्तार है, और अनंत-असीम को छूने में समर्थ है।
इसलिए सिर्फ धर्म कह देने से काम न चलेगा।
एक और शब्द है–ऋषियों ने उपयोग किया–वह शायद और भी निकट है ताओ के। वह शब्द है ऋत–जिससे ऋतु बना। वेद ऋत की चर्चा करते हैं; वह ताओ की चर्चा है। ऋत का अर्थ होता है... ऋतुओं से समझें तो आसानी हो जाएगी।
गरमी आती है, फिर वर्षा आ जाती है, फिर शीत आ जाती है, फिर गरमी आ जाती है। एक वर्तुल है। वर्तुल घूमता चला जाता है। बचपन होता है, जवानी आती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत आ जाती है। एक वर्तुल है, वह घूमता चला जाता है। सुबह होती है, सांझ होती है, रात होती है, फिर सुबह हो जाती है। सूरज निकलता है, डूबता है फिर उगता है। एक वर्तुल है। जीवन की एक गति है वर्तुलाकार। उस गति को चलाने वाला जो नियामक तत्व है, उसका नाम है ऋत।
लेकिन जिन्होंने भी जाना है और जिन्होंने भी दूसरों को जनाने की कोशिश की है, उनका प्राथमिक अनुभव यही है कि जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं है; जो वाणी का आकार ले सकता है, आकर लेते ही अपनी निराकार सत्ता को अनिवार्यतया खो देता है। जैसे कोई आकाश को चित्रित करे, तो आकाश कभी भी चित्रित नहीं होगा; जो भी चित्र में बनेगा, निश्चित ही वह आकाश नहीं है। आकाश तो वह है जो सबको घेरे हुए है; चित्र तो किसी को भी नहीं घेर पाएगा। चित्र तो स्वयं ही आकाश से घिरा हुआ है।
तो चित्र में बना हुआ जैसा आकाश होगा, ऐसे ही शब्द में बना सत्य होगा। न तो चित्र में बने आकाश में पक्षी उड़ सकेगा, न चित्र में बने आकाश में सूरज निकलेगा, न रात तारे दिखाई पड़ेंगे। चित्र का आकाश तो होगा मृत; कहने को ही आकाश होगा, नाम ही भर आकाश होगा। आकाश के होने की कोई संभावना चित्र में नहीं है।
जो भी सत्य को कहने चलेगा, उसे पहले ही कदम पर जो बड़ी से बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है, वह यह कि शब्द में डालते ही सत्य असत्य हो जाता है। ऐसा हो जाता है, जैसा वह नहीं है। और जो कहना चाहा था, वह अनकहा रह जाता है। और जो नहीं कहना चाहा था, वह मुखर हो जाता है।
लाओत्से अपनी पहली पंक्ति में इसी बात से शुरू करता है।
ताओ बहुत अनूठा शब्द है। उसके अर्थ को थोड़ा खयाल में ले ले तो आगे बढ़ने में आसानी होगी। ताओ के बहुत अर्थ हैं। जो भी चीज जितनी गहरी होती है उतनी बहुअर्थी हो जाती है। और जब कोई चीज बहुआयामी, मल्टी डायमेंशनल होती है, तब स्वभावतः जटिलता और बढ़ जाती है।
ताओ का एक तो अर्थ है : पथ, मार्ग, दि वे। लेकिन सभी पथ बंधे हुए होते हैं। ताओ ऐसा पथ है जैसे पक्षी आकाश में उड़ता है; उड़ता है तब पथ तो निर्मित होता है, लेकिन बंधा हुआ निर्मित नहीं होता है। सभी पथों पर चरणचिह्न बन जाते हैं और पीछे से आने वालों के लिए सुविधा हो जाती है। ताओ ऐसा पथ है जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, उनके पदों के कोई चिह्न नहीं बनते, और पीछे से आने वाले को कोई भी सुविधा नहीं होती।
तो अगर यह खयाल में रहे कि ऐसा पथ जो बंधा हुआ नहीं है, ऐसा पथ जिस पर चरणचिह्न नहीं बनते, ऐसा पथ जिसे कोई दूसरा आपके लिए निर्मित नहीं कर सकता–आप ही चलते हैं और पथ निर्मित होता है–तो हम ताओ का अर्थ पथ भी कर सकते हैं, दि वे भी कर सकते हैं। लेकिन ऐसा पथ तो कहीं दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए ताओ को पथ कहना उचित होगा ?
लेकिन यह एक आयाम ताओ का है। तब पथ का एक दूसरा अर्थ लें: पथ है वह, जिससे पहुंचा जा सके; पथ है वह, जो मंजिल से जोड़ दे। लेकिन ताओ ऐसा पथ भी नहीं है। जब हम एक रास्ते पर चलते हैं और मंजिल पर पहुंच जाते हैं, तो रास्ता और मंजिल दोनो जुड़े हुए होते हैं। असल में, मंजिल रास्ते का आखिरी छोर होता है, और रास्ता मंजिल की शुरुआत होती है। रास्ता और मंजिल दो चीजें नहीं हैं, जुड़े हुए संयुक्त हैं। रास्ते के बिना मंजिल न हो सकेगी; मंजिल के बिना रास्ता न होगा। लेकिन ताओ एक ऐसा पथ है, जो मंजिल से जुड़ा हुआ नहीं है। जब कोई रास्ता मंजिल से जुड़ा होता है, तो सभी को उतना ही रास्ता चलना पड़ता है, तभी मंजिल आती है।
ताओ ऐसा पथ है कि जो जहां खड़ा है, उसी स्थान पर, उसी जगह पर खड़े हुए मंजिल को उपलब्ध हो सकता है। इसलिए ताओ को ऐसा पथ भी नहीं कहा जा सकता। जहां खड़े हैं हम, जिस जगह, जिस स्थान पर, वहीं से मंजिल मिल सके; और ऐसा भी हो सकता है कि हम जन्मों-जन्मों चलें, और मंजिल न मिल सके; तो ताओ जरूर किसी और तरह का पथ है। इसलिए एक तो पथ का अर्थ है कहीं गहरे में, लेकिन बहुत सी शर्तों के साथ।
दूसरा ताओ का अर्थ है : धर्म। लेकिन धर्म का अर्थ मजहब नहीं है, रिलीजन नही है। धर्म का वही अर्थ है जो पुरातनतम ऋषियों ने लिया है। धर्म का अर्थ होता है : वह नियम, जो सभी को धारण किए हुए है। जीवन जहां भी है उसे धारण करने वाला जो आत्यंतिक नियम, दि अल्टिमेट लॉ, वह जो आखिरी कानून है वह। तो ताओ धर्म है–मजहब के अर्थों में नहीं, इसलाम और हिंदू और जैन और बौद्ध और सिक्ख के अर्थों में नहीं–जीवन का परम नियम। धर्म है, जीवन के शाश्वत नियम के अर्थ में।
लेकिन सभी नियम सीमित होते हैं। ताओ ऐसा नियम है जिसकी कोई सीमा नहीं है।
असल में सीमा तो होती है मत्यु की; जीवन की कोई सीमा नहीं होती। मरी हुई वस्तुएं ही सीमित होती हैं; जीवित वस्तु सीमित नहीं होती, असीम होती है। जीवन का अर्थ ही है : फैलाव की निरंतर क्षमता, दि कैपेसिटी टु एक्सपैंड। एक बीज जीवित है, अगर वह अंकुर हो सकता है। एक अंकुर जीवित है, अगर वह वृक्ष हो सकता है। एक वृक्ष जीवित है, अगर उसमें और अंकुर, और बीज लग सकते हैं। जहां फैलाव की क्षमता रुक जाती है वहीं जीवन रुक जाता है। बच्चा इसीलिए ज्यादा जीवित है बूढ़े से; अभी फैलाव की क्षमता है बहुत।
तो ताओ कोई सीमित अर्थों में नियम नहीं है। आदमी के बनाए हुए कानून जैसा कानून नहीं है, जिसको कि डिफाइन किया जा सके, जिसकी परिभाषा तय की जा सके, जिसकी परिसीमा तय की जा सके। ताओ ऐसा नियम है जो अनंत विस्तार है, और अनंत-असीम को छूने में समर्थ है।
इसलिए सिर्फ धर्म कह देने से काम न चलेगा।
एक और शब्द है–ऋषियों ने उपयोग किया–वह शायद और भी निकट है ताओ के। वह शब्द है ऋत–जिससे ऋतु बना। वेद ऋत की चर्चा करते हैं; वह ताओ की चर्चा है। ऋत का अर्थ होता है... ऋतुओं से समझें तो आसानी हो जाएगी।
गरमी आती है, फिर वर्षा आ जाती है, फिर शीत आ जाती है, फिर गरमी आ जाती है। एक वर्तुल है। वर्तुल घूमता चला जाता है। बचपन होता है, जवानी आती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत आ जाती है। एक वर्तुल है, वह घूमता चला जाता है। सुबह होती है, सांझ होती है, रात होती है, फिर सुबह हो जाती है। सूरज निकलता है, डूबता है फिर उगता है। एक वर्तुल है। जीवन की एक गति है वर्तुलाकार। उस गति को चलाने वाला जो नियामक तत्व है, उसका नाम है ऋत।
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